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शास्त्री जी की मौत या हत्या ?

 शास्त्री जी की मौत या हत्या ?




शास्त्री जी का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ और उनकी मृत्यु 11 जनवरी 1966 को ताशकंद, उज्बेकिस्तान में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव था जो कि प्राथमिक शाला के अध्यापक थे, इनकी माता राम दुलारी देवी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। लाल बहादुर शास्त्री अपने भाई बहनों में दूसरे नंबर की संतान थे। बचपन में मेरे घर पर नन्हे नाम से संबोधित किया जाता था। जब लाल बहादुर शास्त्री मात्र 2 वर्ष की थी इसी दौरान उनके पिता की मृत्यु हो गई थी पिता की मृत्यु के पश्चात इनकी माताजी इन्हें लेकर अपने मायके मिर्जापुर चली गई यह बच्चों का शिक्षा पर ध्यान देने लगी यहां भी कुछ समय पश्चात शास्त्री जी के नाना जी का स्वर्गवास हो गया।




लाल बहादुर शास्त्री की प्रारंभिक शिक्षा मिर्जापुर और माध्यमिक शिक्षा हरिश्चंद्र हाई स्कूल से हुई शास्त्री जी की उच्च शिक्षा काशी विद्यापीठ में हुई जहां संस्कृत स्नातक होने के पश्चात उन्होंने जातिसूचक श्रीवास्तव शब्द को हटाकर शास्त्री नाम को ग्रहण किया बचपन से ही शास्त्री जी जाति प्रथा के विरोधी थे।
वर्ष 1928 में शास्त्री जी का विवाह ललिता शास्त्री से हुवा एवं यह कुल 6 संतानों की पिता बने। अपने विवाह के दौरान इन्होंने किसी भी प्रकार का दहेज नहीं लिया था। अपने जीवन काल को राष्ट्र सेवा में समर्पित करते हुए उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लेना प्रारंभ कर दिया।
यूं तो शास्त्री जी की ईमानदारी, कर्मठता और सादगी के बहुत सारे किस्से हैं लेकिन कम लोग जानते हैं कि उनका अपना रहन सहन इतना सादा था कि देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके पास ना अपना खुद का घर था और ना अपनी खुद की कार यू नहीं की इसके पहले भी सरकारी पद पर रहते हुए उन्होंने तनख्वाह नहीं मिलती थी। लेकिन उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा समाजिक कार्यों पर खर्च हो जाता था कभी कोई दरवाजे पर आ जाए तो खाली हाथ नहीं जाता था जरूरतमंदों के लिए उनके घर के दरवाजे हमेशा खुले हुए थे।

1964 मैं प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने एक कार खरीदने की सूची यह डिमांड भी हालांकि उनके बच्चों की थी उन्हें लगता था कि उनके पिता देश के प्राइम मिनिस्टर हैं और उनके घर में खुद की कार नहीं है उन्होंने कार खरीदने की सोच तो ली लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वह सीधे डाउन पेमेंट करके कार खरीद पाए उनके बैंक अकाउंट में उस वक्त सिर्फ ₹7000 थे और कार की कीमत थी ₹12000, लेकिन वे कार खरीदने का मन बना चुके थे। उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक में कार लोन के लिए अपनी एप्लीकेशन डाल दी। उन्हें ₹5000 का लोन चाहिए था उन्होंने उस वक्त भी इतना ही लोन लिया जितना किसी और आम नागरिकों मिल सकता था उनका वसूल साफ था प्रधानमंत्री होने के नाते उनके कोई विशेष अधिकार नहीं है, उन्हें भी वही अधिकार हासिल है जो किसी अन्य नागरिक होंगे।
1965 में उन्होंने अपने जीवन की पहली कार खरीदी और उसके 1 साल बाद ही 1966 में उनका आकस्मिक निधन हो गया उनकी मृत्यु के बाद 24 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री जी से उनका बैंक लोन माफ करवाने की पेशकश की लेकिन ललिता जी ने साफ इंकार कर दिया ललिता ने अगले 4 सालों तक नियमित रूप से उसका लोन की किस्त भरी लाल बहादुर शास्त्री की वह ऐतिहासिक कार आज भी दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में उनके ईमानदारी और नेकी की यादगार मिसाल की तरह रखी हुई है।




मैं अपने कमरे में सो रहा था तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। गेट पर एक महिला थी। उसने कहा- योर प्राइम मिनिस्टर इज डाइंग । मैं भागता हुआ शास्त्री जी के कमरे की तरफ बढ़ा तो वहां बरामदे में सोवियत संघ के PM अलेक्सी कोसीगिन खड़े थे। उन्होंने मुझे देखते ही दोनों हाथ ऊपर उठा दिए। भीतर डॉक्टरों की एक टीम शास्त्री जी को घेर कर खड़ी थी। '
11 जनवरी 1966 को रात करीब डेढ़ बजे की यह आंखों देखी है कुलदीप नैयर की। वे तब प्रधानमंत्री के 'सूचना | सलाहकार थे और 1965 के युद्ध में पाकिस्तान के लाहौर तक परचम फहराने वाले PM लाल बहादुर शास्त्री के साथ ताशकंद पहुंचे थे। तब का ये सोवियत शहर आज उज्बेकिस्तान की राजधानी है।
यहां एक दिन पहले ही सोवियत संघ की मेजबानी में शास्त्री ने पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब से ताशकंद समझौता किया था। समझौते में पाकिस्तान ने भारत की कब्जाई जमीन छोड़ दी और बदले में भारत को लाहौर के करीब तक पहुंच चुकी फौज वापस बुलानी पड़ी थी।
उधर, नैयर जब तक शास्त्री जी के कमरे के भीतर पहुंचे, यह तय हो चुका था कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री जीवित नहीं रहे। नैयर के मुताबिक उनका शव बिस्तर पर था । चप्पलें करीने से रखी थीं, लेकिन उनका पानी वाला थर्मस ड्रेसिंग टेबल पर लुढ़का पड़ा था। साफ था, बेचैन शास्त्री ने पानी पीने की कोशिश तो की, लेकिन कामयाब नहीं हो सके।

3 जनवरी, 1966 को शास्त्री जब पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान के साथ बैठक के लिए ताशकंद रवाना हुए थे, उस समय बहुत ठंड थी और वह अपने साथ केवल खादी का ऊनी कोट ले गए थे। ताशकंद में कोशिगिन ने अनुभव किया कि शास्त्री जो कोट पहने हुए हैं, वह ठंडी हवाओं से बचाव के लिए पर्याप्त गर्म नहीं है। | उन्होंने शास्त्री को एक ओवरकोट देना चाहा, लेकिन कोट किस प्रकार दिया जाए इसे लेकर वह निश्चित नहीं थे। बाद में एक कार्यकम में उन्होंने शास्त्री को उपहार में एक रूसी कोट दिया।
| कोशिगिन को उम्मीद थी कि शास्त्री ताशकंद में इस कोट को पहनेंगे। अगली सुबह रूसी प्रधानमंत्री ने देखा कि शास्त्री वही खादी कोट पहने हुए हैं, जो वह दिल्ली से लेकर आए हैं। लेखकों के मुताबिक हिचकिचाते हुए कोशिगिन ने भारतीय प्रधानमंत्री से पूछा कि उन्हें उनके द्वारा दिया गया ओवरकोट पसंद है या नहीं।
शास्त्री ने जवाब दिया, 'यह वास्तव में गर्म है और मेरे लिए बहुत आरामदायक है। लेकिन मैंने इसे अपने एक स्टाफ को दे दिया, जो कड़ाके की ठंड में पहनने के लिए अच्छा ऊनी कोट नहीं लाया था। मैं भविष्य में ठंडे देशों के दौरे के दौरान आपके द्वारा उपहार में दिए गए ओवरकोट का प्रयोग अवश्य करूंगा।' कोशिगिन ने शास्त्री और खान के सम्मान में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में इस घटना का जिक्र किया। उन्होंने कहा, 'हम कम्युनिस्ट हैं, लेकिन शास्त्री सुपर कम्युनिस्ट हैं। '



27 मई 1964 हिंदुस्तान (Hindustan) की वह तारीख थी जिस दिन देश ने अपने पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू (Prime Minister Jawaharlal Nehru) को हमेशा के लिए खो दिया था. अचानक हुई उनकी मौत (Death) ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था. भारत में तो मातम का माहौल था ही. भारत को आजादी मिले कुछ ही साल हुए थे, ऊपर से 1962 में भारत चीन (China) से युद्ध (War) भी हार चुका था. उस दौर की तमाम किताबों, नेहरू के मित्रों, समकालीन नेताओं और | अधिकारियों की किताबों और संस्मरणों से जो बात सबसे पुख्ता तरीके से निकल कर आती है वो यही है कि उनकी मौत का असली कारण चीन का विश्वासघात था.
सही मायनों में उनकी मौत हार्टअटैक की वजह से हुई थी. लेकिन उसे चीन सो जोड़ कर इस लिए देखा जाता है क्योंकि चीन के भारत पर हमले के बाद से ही उनकी सेहत बिगड़नी शुरू हुई थी. 1962 में जब भारत चीन से युद्ध हारा तो उसके बाद से ही प्रधानमंत्री नेहरू की सेहत गिरने लगी थी. कारण था कि वह इस युद्ध में भारत की हार को सह नहीं पा रहे थे. शायद अंदर ही अंदर नेहरू खुद को इसका जिम्मेदार मानते थे. 20 नवंबर 1962 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने देश को संबोधित करते हुए चीन से मिली सैनिक हार को स्वीकार कर लिया था. उन्होंने स्वीकार किया कि वालौंग, सीला और बोमडीला इलाकों में भारतीय सेना की हार हुई. यही नहीं पंडित नेहरू ने संसद में भी उदास मन से कहा था कि “हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था.” नेहरू की बातों से साफ जाहिर था कि उन्होंने चीन को समझने में गलती की थी जिसका खमियाजा देश को युद्ध हार कर भुगतना पड़ रहा था.

वो ऐसे पीएम थे, जिनके कहने पर लाखों भारतीयों ने एक वक्त का खाना छोड़ दिया
1965 में जब भारत-पाकिस्तान के बीच जंग चल रही थी, तो अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने शास्त्री को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की, तो हम आपको जो लाल गेहूं भेजते हैं, उसे बंद कर देंगे।



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उस वक्त भारत गेहूं के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। शास्त्री को ये बात चुभ गई। उन्होंने | देशवासियों से अपील की कि हम लोग एक वक्त का भोजन नहीं करेंगे। उससे अमेरिका से आने वाले गेहूं की जरूरत नहीं होगी। शास्त्री की अपील पर उस वक्त लाखों भारतीयों ने एक वक्त खाना खाना छोड़ दिया था।
देशवासियों से अपील से पहले शास्त्री ने खुद अपने घर में एक वक्त का खाना नहीं खाया और न ही उनके परिवार ने । ऐसा इसलिए, क्योंकि वो देखना चाहते थे कि उनके बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं। जब उन्होंने देख लिया कि वो और उनके बच्चे एक वक्त बिना खाना खाए रह सकते हैं, तब जाकर उन्होंने देशवासियों से अपील की।

जब 'छोटा कद' देख पाकिस्तान ने कर दी बड़ी गलती
1962 की जंग में चीन से मिली हार से भारत अभी उबर रहा था। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौत हो चुकी थी और लाल बहादुर शास्त्री देश के नए प्रधानमंत्री थे । पाकिस्तान को लगा कि कद में छोटे दिखने वाले शास्त्री कमजोर होंगे और तीन तरफ से युद्ध छिड़ने पर ठीक से हालात को संभाल नहीं पाएंगे। उसे कश्मीर हड़पने का सबसे अच्छा मौका नजर आया।
अप्रैल 1965 में कच्छ के बड़े इलाके पर पाकिस्तान ने अपना हक जमाया। उसके ऑपरेशन का नाम था डेजर्ट हॉक। यह भारत के खिलाफ युद्ध शुरू करने की दिशा में पहला कदम था। अगस्त आते-आते पाकिस्तान की सेना ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के नाम से कश्मीर में सैन्य ऑपरेशन शुरू कर दिया। इसका मकसद एलओसी को पार कर कश्मीर की मुस्लिम आबादी को सरकार के खिलाफ उकसाना था।

| पाकिस्तान का कोडनेम भी विदेशी
पाक फौज के आकाओं को लग रहा था कि इस तरह से यह स्थानीय कश्मीरियों की बगावत नजर आएगी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान इसे उछाल सकेगा। कोडनेम भी पाकिस्तान ने पुतर्गाल और स्पेन पर मुस्लिम आक्रमण से लिया था जो जिब्राल्टर पोर्ट से शुरू किया गया था। लालबहादुर शास्त्री ने सेना को खुली छूट दे दी। 28 अगस्त को भारत ने हाजीपीर पर कब्जा कर लिया। इस बीच, सोची-समझी साजिश के तहत पाकिस्तान ने तीसरा ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू कर दिया। पाकिस्तान को लग रहा था कि इस तरह चौतरफा अटैक से भारत घबरा जाएगा। लेकिन उसने शास्त्री को समझने में भूल कर दी।
तारीख थी 1 सितंबर 1965
1 सितंबर को पाकिस्तान की सेना अखनूर पुल तक आ पहुंची थी। अब भारत की बारी थी। भारतीय फौज ने 6 सितंबर को पंजाब फ्रंट पर मोर्चा खोल दिया और सेना लाहौर की तरफ बढ़ चली। 24 घंटे में सियालकोट | सेक्टर में भारतीय सेना तेजी से आगे जा रही थी । पाकिस्तान की सेना खेमकरण की तरफ बढ़ी और यहां भीषण टैंक युद्ध लड़ा गया। भारतीय फौज को हावी होता देख पाकिस्तान सहम गया। इधर, जंग लड़ी जा रही थी उधर, संयुक्त राष्ट्र में हलचल बढ़ गई थी।




जंग रोकने आए संयुक्त राष्ट्र महासचिव
4 सितंबर 1965 को सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 209 (1965) के जरिए सीजफायर का आह्वान किया और दोनों देशों की सरकारों से संयुक्त राष्ट्र की टीम (UNMOGIP) के साथ सहयोग करने को कहा, जिसे सीजफायर की निगरानी करने का जिम्मा 16 साल पहले ही सौंपा गया था। दो दिन बाद सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 210 स्वीकार किया और महासचिव से | हरसंभव कोशिश करने का अनुरोध किया। इसके जरिए संयुक्त राष्ट्र चाहता था कि उसका सैन्य पर्यवेक्षण समूह जंग रोक सके। 7 से 16 सितंबर तक महासचिव ने उपमहाद्वीप का दौरा किया।
दोनों देशों की शर्तों पर फंसा पेंच

16 सितंबर को उन्होंने सुरक्षा परिषद को दी अपनी रिपोर्ट में बताया कि दोनों पक्षों ने संघर्षविराम की बात कही है लेकिन दोनों शर्ते रख रहे हैं और ऐसे में मुश्किल हो रही है। इसके बाद महासचिव ने सुरक्षा परिषद को सुझाव दिया कि वह अपने स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाए। पहला, दोनों सरकारों को यूएन चार्टर के आर्टिकल 40 के तहत आगे सैन्य ऐक्शन रोकने को निर्देशित करे। दूसरा, दोनों पक्षों से सैनिकों की वापसी सुनिश्चित करने को कहा जाए। तीसरा, दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों से अनुरोध किया जाए कि वे किसी मित्र देश में मिलकर संकट का हल निकालें। आखिरकार 20 सितंबर को परिषद ने प्रस्ताव 211 पारित किया जिसके तहत कहा गया कि 22 सितंबर 1965 को सुबह 7 बजे से सीजफायर होगा। साथ ही दोनों देशों के | सैनिक पीछे हटकर 5 अगस्त से पहले वाली स्थिति में चले जाएंगे।




जय जवान जय किसान का नारा देने वाली लाल बहादुर शास्त्री की गिनती देश के उन चुनिंदा नेताओं में की जाती है जो सदैव राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझते थे। सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री द्वारा अपने जीवन काल में राजनीति में ऐसे आदर्श स्थापित किए गए थे जो आज भी देश की करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है। छोटे कद का नेता होने के बावजूद उन्होंने अपने जीवन में उच्च आदर्शों का पालन किया था एवं देश की भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखकर अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को शुरू किया था। चाहे भारत पाकिस्तान युद्ध हो या देश के समक्ष उपस्थित खदान संकट, विभिन्न परिस्थितियों में शास्त्री जी ने अपनी कुशल नेतृत्व का परिचय दिया था।



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