चिंता चिता समान
चिंता चिता समान
चिंता को एक चिता के समान माना गया है । जो व्यक्ति सदा चिंतित रहता है , वह अपनी मृत्यु को स्वयं ही बुलावा दे रहा होता है । ऐसा हमारे शास्त्रों ने एवं आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने माना है । भय को चिंता की जननी माना जाता है । कुछ समय पश्चात् यही चिंता तनाव का रूप ले लेती है , जो कई प्रकार के रोगों को जन्म देने लगती है । ये रोग व्यक्ति को अंदर ही अंदर से खोखला करके मौत के मुंह में धकेल देते हैं ।
दिल का रोग , पेट का अलसर , उच्च रक्तचाप और मधुमेह आदि कई रोग चिंता के कारण ही शरीर के अंदर पनपने लगते हैं । ये रोग ऐसे हैं कि यदि लग जाएं , तो मृत्यु पर्यंत पीछा नहीं छोड़ते ।
छल - कपट के कार्य भी चिंता को बढ़ाते हैं , जिसका बाद में बहुत बड़ा मूल्य चुकाना पड़ता है । महाभारत के एक प्रसंग में जब यक्ष ने युधिष्ठिर पूछा कि आंधी में उड़ने वाले तिनकों से भी अधिक संख्या किसकी होती है ? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि मानव - चिंताओं की । मानव के जो सबसे अधिक भयानक शत्रु माने गए हैं , उनमें चिंता का स्थान काफी ऊपर है ।
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