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भगत सिंह Book Summary

 

दोस्तों यह बात गुलाम भारत की है जहाँ एक बार एक बच्चे ने अपने पिता की बंदूक को खेत में दबा दिया जब पिता ने पूछा की बंदूक कहा है तब बच्चे ने बताया कि अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ने के लिए बंदूक को खेतों में दबा के आया जब कई बंदूकें हो जाएंगी तो उनसे लड़ने में आसानी होगी कौन था ये वीर जो बंदूक बहुत आता था और से वार करता था जो की फ़्रीडम फाइटर होने के सोशलिस्ट रिवॉल्यूशनरी था जिसका सपना सिर्फ आजादी नहीं उससे कहीं ज्यादा आगे का था और इतिहास ने उसके इस रिवोल्यूशनरी पर के ऐंगल को बहुत जस्टिस नहीं दिया और उसे बस एक बंदूकधारी देशभक्त तक सीमित कर दिया ये रेवोल्यूशनरी कौन थे दोस्तों आजतक आपने देश के फ्रीडम फाइटर्स के बारे में जो भी सुना है उसका सारा लब्बोलुबाब बस यही निकलकर आया कि भारत में दो तरीके के क्रांतिकारी थे



 एक जो थे शांति से प्रोटेस्ट कर के उन्होंने आजादी के लिए स्ट्रगल किया दूसरे वो थे जो थे बड़े ही गर्म हो खोल के बात बात पर निकाल देते थे हैंडमेड पिस्तौल भावी किस्म के ये नौजवान पढ़ते थे गाल मार्क्स मूंछों पर ताव देकर शान से लड़ते थे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ इनके बारे में कहा तो ये जाता है की ये जोधा अपनी पिस्टल और बाजुओं पर ज्यादा भरोसा करते थे और शांति से इनका इनका लाभ आना जैसे मुमकिन ही नहीं था लेकिन दोस्तों अगर मैं आपको ये बताओ की गर्म मिजाजी के सबसे बड़े लीडर जिन्होंने दिल्ली असेंबली पर बम गिराया जिनके ऊपर ना जाने कैसे कैसे की चार्जेस लगते रहे जो ब्रिटिश हुकूमत के नाक में दम किए हुए थे जिन्हें पिस्तौल और बम बनाना बखूबी आता था वो तो असल में सदी के सबसे बड़े इंटलेक्चुअल्स में से एक थे सिर्फ हथियार ही नहीं उन्होंने का जादू भी उतना ही बिखेरा तो आखिर आज तक ये सच क्यों सामने नहीं आया कि उन्हें पिस्तौल की गोली से ज्यादा विचारों की क्रांति पर भरोसा था तभी तो उन्होंने पूरे शान से कहा था ये बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती क्रान्ति की तलवार दो विचारों की शान पर तेज होती है तो क्या ये योद्धा सिर्फ देशभक्ति ही थे या उससे कहीं ज्यादा या उनके विचार अंग्रेजी हुकूमत तक सीमित थे या वो सोचते थे इससे कहीं ज्यादा और आगे इस युद्ध के बारे में ये भी शायद बहुत ही कम लोगों को पता है कि समुद्र से गहरा उनका देश प्रेम तो था उससे भी कहीं ज्यादा गहरा था उनका प्रिन्सिपल ऑफ इन्टरनैशनल इज़म तभी तो जहाँ उनकी से देश प्रेम की की निकले वहीं उनकी कलम से निकला एक वासुदेव कुटुम्बकम का ये जज्बा यहाँ कितना महान आदर्श है और किसी को अपना हो जाने दो कोई भी अजनबी ना हो वो कैसा सुंदर समय होगा जब दुनिया से बराय बन का भाव हमेशा के लिए मिट जाएगा वो दिन जब ये आदर्श स्थापित होगा उस दिन यहाँ कह सकेंगे कि दुनिया ने अपनी ऊँचाई कुछ हो दिया है इस सिरीज़ के नायक की हस्ती कुछ ऐसी है कि अपने आखिर केबल में भी ईश्वर को याद किए जाने का कहने पर उनका जवाब था की पूरी उम्र में नास्तिक था अगर आप मौत से डर कर ईश्वर से शरण मांग ली तो डरपोक कहलाऊंगा नायक ने अपनी जिंदगी में भरपूर किताबें पढ़ी और कई आर्टिकल्स लिखे लिखी इनके लाइफ की तीन प्रिन्सिपल थे जिसपर वो हमेशा डटे रहे बचपन से ही तीव्र बुद्धि के ये योद्धा कई बड़ी इंटरनैश्नल आइकन से थे समाज को देखने का नजरिया इनके कॉन्टेम्परेरी से बिल्कुल अलग था आखिर इस वीर की जिंदगी में ऐसा क्या घटा जिसने इन्हें नास्तिक बना दिया तो कौन हैं हमारे इस जो सिरीज़ के नायक जिनके तीन प्रिन्सिपल्स कोई ठीक से ना समझ पाया उससे ज्यादा जरूरी आखिर क्या थे ये तीन प्रिन्सिपल्स जिसने इस हीरो को हर दौर के लिए रेलेवेंट और बना दिया सुनने के लिए जुड़े रहें हमारे साथ और जानें इस की लाइफ के अनटच्ड पहलू आगे के एपिसोड्स में,

 

बचपन भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर को पंजाब सूबे के लायलपुर जिले के बावली गांव में हुआ था अब यह गांव पाकिस्तान का हिस्सा है भगत सिंह के पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था भगत सिंह को देशभक्ति की भावना अपने घर से ही मिली थीं इनके पिता और चाचा दोनों अपने देश की आजादी के दीवाने थे भगत सिंह के दादा को अंग्रेजी हुकूमत से इतनी नफरत थी की वो अंग्रेजों की एक एक निशान को मिटा देना चाहते थे जब भगत सिंह पढ़ने लिखने की उम्र में आए तो परिवार में चर्चा चली की पढ़ाई के लिए किसी अच्छे स्कूल में भगत सिंह का दाखिला करा दिया जाए लेकिन दादा को ये बिल्कुल ही मंजूर नहीं था कि उनका पोता उस किसी भी स्कूल में पढ़ाई करें इसका नाम अंग्रेजों से जुड़ा हो उन्होंने भगत सिंह को ब्रिटिश स्कूल में पढ़ाने से बिल्कुल मना कर दिया था और यही वजह थी कि इनका दाखिला आर्य समाज के स्कूल में करा दिया गया हिंदुस्तान के लिए भगत सिंह की दीवानगी इसी माहौल में रंग लाई,


 मैं बंदूक होता भगत सिंह के भीतर आज़ादी को लेकर कितनी बेचैनी थी इसका सुबूत उनके बचपन की एक वाकई से मिलता है तब उनकी उम्र महज 5 साल की थी आम बच्चों की तरह वो भी अपने दोस्तों के साथ खेला करते थे इसके लिए वो अपने साथियों को दो दो टोलियों में बांट दिया करते थे वे एक दूसरे पर हमला करके युद्ध का अभ्यास किया करते थे इस अभ्यास में उनकी वीरता धीरता और निर्भिकता के अभ्यास का आभास मिलता था,


 एक बार सरदार किशन सिंह अपने बेटे भगत सिंह को लेकर अपने दोस्त नंदकिशोर मेहता के पास उनके खेत पर पहुँच गए दोनों दोस्त आपस में बातचीत करने में लग गए और भगत सिंह अपने खेल में लेकिन अचानक नंदकिशोर मेहता का ध्यान भगत सिंह के खेल की ओर गया भगत सिंह मिट्टी के ढेरों पर छोटे छोटे दिन के लगाए जा रहे थे नंदकिशोर मेहता को भगत सिंह पर स्नेहा गया और नंदकिशोर मेहता ने पूछा तुम्हारा क्या नाम है भगत सिंह ने जवाब दिया भगत सिंह मेहता ने पूछा तुम क्या कर रहे हो भगत सिंह ने तन का जवाब दिया मैं बोल रहा हूँ मेहता ने चौंकते हुए पूछा बंदूक है भगत सिंह ने गम्भीर होकर जवाब दिया हाँ बंदूक है मेहता ने पूछा ऐसा क्यों भगत सिंह का जवाब था अपने देश को आजाद कराने के लिए जाने की ख्वाहिश बढ़ी आगे पूछा तुम्हारा धर्म क्या है भगत सिंह ने जवाब दिया देशभक्ति मुल्क की खिदमत नंदकिशोर मेहता ने नन्हें से भगत सिंह को बड़े स्नेह के साथ अभी गोद में उठा लिया मेहता भगत सिंह के जवाब से दंग थे उन्होंने सरदार किशन सिंह से कहा भाई तुम बड़े भाग्यवान जो तुम्हारे घर में ऐसी होनहार वो विलक्षण बच्चे ने जन्म लिया है मैं इसे दिल से दुआ देता हूँ तुम्हारा ये बच्चा दुनिया में तुम्हारा नाम रोशन करेगा देशभक्तों में इसका नाम अमर होगा भगत सिंह की आगे की कहानी ये साबित कर दी है कि मेहता की भविष्यवाणी पूरी तरह सच निकली,


 विरासत में बगावत कुछ संकल्प अवचेतन में समा जाते हैं भगत सिंह के भीतर के कुछ संकल्प ऐसे ही आकार लिए थे 1857 के गदर से लेकर विद्रोह तक जो भी साहित्य मिलता भगत सिंह उसे पढ़ा डालते एक एक क्रांतिकारी की कहानी किशोर भगत सिंह की जुबान पर थी उनके खुद के परिवार की कई पीढ़ियां अंग्रेजी राज़ से लड़ती आ रही थी दादा अर्जुन सिंह पिता किशन सिंह चाचा अजीत सिंह और चाचा स्वर्ण सिंह को देश के लिए मर मिटते भगत सिंह ने देखा था चाचा स्वर्णसिंह सिर्फ 23 साल की उम्र में जेल की यात्रा ओं का विरोध करते हुए शहीद हो चूके थे दूसरे चाचा अजीत सिंह को देश से निकाला गया था दादा और पिता आए दिन आंदोलनों की अगुवाई करतीं जेल जाया करते थे पिता गाँधी और कांग्रेस के अनुयायी थे तो चाचा गर्म दल की विचारधारा का नुमाइंदगी करते थे घर में घंटों पैसे होती इसी माहौल में भगत सिंह के सहन में विचारों की फसल पकती रही बचपन में ही क्रांति का जुनून इंसान को संस्कार सिर्फ माता पिता या परिवार से ही नहीं मिलते समाज भी अपने ढंग से संस्कारों के बीच पोता है पिछली सदी के शुरुआती साल कुछ ऐसे ही थे उस दौर में संस्कारों और विचारों की जो फसल होगी उसका असर आज भी दिखाई देता है उन दिनों गोरी हुकूमत ने की सारी हदें तोड़ दी थी देशभक्तों को कीड़े मकोड़ों की तरह मारा जा रहा था किसी को भी फांसी पर चढ़ा देना सरकार का शगल बन गया था

                          ऐसे में जब 8 साल के बालक भगत सिंह ने किशोर क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा को वतन के लिए हंसते हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ते देखा तो हमेशा के लिए करदार देवता की तरह उनके बाल मन के मंदिर में प्रतिष्ठित हो गए 24 घंटे करतार की तस्वीर भगत सिंह के साथ रहती सराभा की फांसी के रोज़ क्रांतिकारियों ने जो गीत गाया था वो भगत सिंह अक्सर गुनगुनाया करते थे इस गीत की कुछ पंक्तियाँ इस तरह थी फख्र है भारत को करदार तू जाता है आज जगन शॉपिंग ले को भी साथ ले जाता है आज हम तुम्हारे मिशन को पूरा करेंगे संगियों कसम हर हिंदी तुम्हारे होठों की खाता है आज 16 साल की उम्र में विचारों की दुनिया भगत सिंह 15-16 साल के थे और नैश्नल कॉलेज लाहौर में पढ़ रहे थे,


 देश को आजादी कैसे मिले इस पर अपने शिक्षकों और सहपाठियों से चर्चा किया करते थे जितनी अच्छी हिंदी और उर्दू उतनी ही अच्छी अंग्रेजी और पंजाबी भी इसी ***** उम्र में भगत सिंह ने पंजाब में उठे भाषा विवाद पर झकझोर देने वाला लेख लिखा लेख पर हिंदी साहित्य सम्मेलन ने 50 का इनाम दिया भगत सिंह की शहादत के बाद 28 फरवरी 1935 को हिंदी संदेश में ये लेख प्रकाशित हुआ था भगत सिंह ने उस लेख में लिखा था इस समय पंजाब में उर्दू का ज़ोर है अदालतों की भाषा भी यही है ये सब ठीक है लेकिन हमारे सामने इस वक्त बड़ा सवाल भारत को एक राष्ट्र बनाना है एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है लेकिन ये एकदम नहीं हो सकता उसके लिए कदम कदम चलना पड़ता है अगर हम सभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम तो एक बना देना चाहिए उर्दू लिपि सर्वांग संपूर्ण नहीं है फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार है उर्दू कवियों की उड़ान चाहे वो हिंदी ही क्यों ना हो ईरान से और के खजूरों तक जा पहुंचती है बाजी नजरुल इस्लाम की कविता में तो दूर जड़ी विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार बार हैं लेकिन हमारे उर्दू हिंदी पंजाबी कवि उस ओर ध्यान तक ना दे सके क्या ये दुख की बात नहीं इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनका अनजान आपन है उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती तो फिर उनके रचे गए साहित्य से हम कहाँ तक भारतीय बन सकते हैं है तो उर्दू अपूर्ण है और जब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित भरे पूरे रूप में हिंदी मौजूद है तो फिर उसे अपनाने में हिचक क्यों हिंदी के पक्षधर सज्जनों से हम कहेंगे कि हिंदी भाषा ही अंत में 1 दिन भारत की भाषा बनेगी लेकिन पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी घर छोड़ कर कानपुर का रोष इसी बीच भगत सिंह घर छोड़कर कानपुर जा पहुंचे भगत सिंह ने यहाँ पत्रकारिता करना शुरू कर दिया

    उन्होंने बलवंत सिंह के नाम से लिखना शुरू कर दिया उनके विचारोत्तेजक लेख प्रताप में छाप दे और उन्हें बढ़कर लोगों के दिलों दिमाग में क्रांति की चिंगारी भड़कने लगती उन्हीं दिनों कलकत्ता से साप्ताहिक मतवाला निकलता था मतवाला में लिखी है भगत सिंह के बेहद चर्चित हुए एक का शीर्षक था विश्व प्रेम 15 और 22 नवंबर 1924 को दो में ये लेख प्रकाशित हुआ था उस लेख में भगत सिंह के विचारों की क्रांतिकारी अभिव्यक्ति दिखती है ये किस्सा कुछ इस तरह था जब तक काला गोरा सभ्य असभ्य शासक शासित अमीर गरीब छूत अछूत आदि शब्दों का प्रयोग होता है तब तक कहा विश्व बंधुत्व और कहा विश्व प्रेम युद्ध देश स्वतंत्र जातियां दे सकती है भारत जैसा गुलाम देश तो इसका नाम भी नहीं ले सकता फिर उसका विचार कैसे होगा तुम्हें शक्ति एकत्र करनी होगी शक्ति एकत्रित करने के लिए अपनी एकत्रित शक्ति खर्च कर देनी पड़ेगी राणा प्रताप की तरह जिंदगी भर दर दर ठोकरें खानी होंगी तब कहीं जाकर उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकोगे तुम विश्व प्रेम का दम भरते हो पहले पैरों पर खड़े होना तो सीखो स्वतंत्र जातियों में अभिमान के साथ सिर ऊंचा करके खड़े होने के योग्य बहनों जब तक तुम्हारे साथ कामागाटामारू जहाज जैसे दुर्व्यवहार होते रहेंगे तब तक डैम काला मैन कहलाओगे जब तक देश में जलियांवाला बाग जैसे भीषण कांड होंगे जब तक वीरांगनाओं का अपमान होगा और तुम्हारी ओर से कोई प्रतिकार करना होगा तब तक तुम्हारा ये ढोंग कुछ मानी नहीं रखता कैसी शांति कैसा सुख और कैसा विश्व प्रेम यदि वास्तव में चाहते हो तो पहले आप मानों का प्रतिकार करना सीखो माँ को आजाद कराने के लिए कट मरो बंदी माँ को आजाद कराने के लिए आजन्म काले पानी में ठोकरें खाने को तैयार हो जाओ करने को तत्पर हो जाओ बलिदान के गूंजते शब्द भगतसिंह ने युवक शीर्षक से खून खौला देने वाला एक दूसरा लेख लिखा उस लेख में भगत सिंह ने कुछ नहीं लिखा अगर रक्त की भीड़ चाहिए तो सिवा युवक के कौन देगा अगर तुम बलिदान चाहते हो तो तुम्हे युवक की ओर देखना होगा प्रत्येक जाति के भाग्यविधाता युवक ही होते है सच्चा देशभक्त युवक बिना झिझक मौत का आलिंगन करता है संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है तोप के मुँह पर बैठकर मुस्कुराता है बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फांसी के तख्ते पर हस्ते हस्ते चाह जाता है अमेरिकी युवा पैट्रिक हेनरी ने कहा था जेल की दीवारों के बाहर जिंदगी बड़ी महंगी है पर जेल की काल कोठरियों की ज़िंदगी और भी महंगी है क्योंकि यहाँ ये स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य के रूप में चुकाई जाती है हाँ ये भारतीय युवक दुख क्यों गफलत की नींद में बड़ा बेखबर सो रहा है उठ अब अधिक मत सो सोना हो तो अनंत मित्र की गोद में जाकर सो रहा हो देख कार है तेरी निर्जीवता पर तेरे पूर्वज भी नतमस्तक है इस पुंसत्व पर यदि आप भी तेरे किसी अंग में कुछ है या हो तो उठकर माता के दूध की लाज रख उसके उद्धार का बीड़ा उठा उसके आंसुओं की एक एक बूंद की सौगंध ले उसका बेड़ा पार कर और मुक्त कंठ से बोल वंदे मातरम् भगत सिंह की पत्रकारिता प्रताप में भगत सिंह की पत्रकारिता को पंख लग गए,


 बलवंत सिंह के नाम से छपे इन लेखों ने धूम मचा दी शुरुआत में दो खुद गणेश शंकर विद्यार्थी को पता नहीं था कि असल में बलवंत सिंह है कौन और 1 दिन जब पता चला तो भगत सिंह को उन्होंने गले से लगा लिया भगत सिंह और प्रताप के संपादकीय विभाग में काम कर रहे थे इन दिनों दिल्ली में तनाव बढ़ा दंगे भड़के और गणेश शंकर विद्यार्थी ने भगत सिंह को रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली भेजा विद्यार्थी दंगों की निरपेक्ष रिपोर्टिंग चाहते थे भगत सिंह उनकी उम्मीदों पर खरे उतर रहे थे प्रताप में काम करते हुए उन्होंने महान क्रान्तिकारी शचिन्द्रनाथ सान्याल की आत्मकथा जीवन का पंजाबी में अनुवाद किया था इस अनुवाद ने पंजाब में देशभक्ति की एक नई लहर पैदा कर दी थी इसके बाद आयरिश क्रांतिकारी देन ब्रेन की आत्मकथा का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया प्रताप ने यह अनुवाद आयरिश स्वतंत्रता संग्राम शीर्षक से प्रकाशित हुआ इस अनुवाद ने भी देश में चल रहे आजादी के आंदोलन को एक वैचारिक मोड़ दिया आजाद से मिले विद्यार्थी के लाडले भगत भगत सिंह गणेश शंकर विद्यार्थी के लाडले थे उनका लिखा एक एक शब्द विद्यार्थी को गर्व से भर देता था ऐसी ही किसी भावुक पल में विद्यार्थी जी ने भगत सिंह को भारत में क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आजाद से मिलवाया आजादी के दीवाने दो आतिशी क्रांतिकारियों का ये अद्भुत मिलन था भगत सिंह अब क्रांतिकारी गतिविधियों और पत्रकारिता दोनों में शानदार काम कर रहे थे बढ़ी तो पुलिस को भी शंका हुई विद्यार्थी जी ने पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह को अलीगढ़ जिले के शादीपुर गांव के स्कूल में हेडमास्टर बनाकर भेज दिया भगत सिंह जीस समय शादीपुर में थे उसी दरमयान विद्यार्थी जी को उनकी असली पारिवारिक कहानी पता चली विद्यार्थी जी खुद शादीपुर गए और भगत सिंह को मनाया कि वो अपने घर लौट जाएं दरअसल भगत सिंह के घर छोड़ने के बाद उनकी दादी की हालत बिगड़ गई थी दादी को लगता था कि शादी के लिए उनकी जिद के चलते ही भगत सिंह ने घर छोड़ा है इसके लिए वो अपने आप को कसूरवार मानती थीं

   भगत सिंह का पता लगाने के लिए पिताजी ने अखबारों में इश्तेहार दिए थे ये इश्तिहार विद्यार्थी जी ने देखे थे लेकिन तब उन्हें पता नहीं था कि उनके यहाँ काम करने वाला बलवंत सिंह असल में भगत सिंह है,


 इसी के बाद शादीपुर जा पहुंचे भगत सिंह विद्यार्थी जी का अनुरोध कैसे डालते भगत सिंह फौरन घर रवाना हो गए दादी की सेवा की और कुछ समय बाद पत्रकारिता की पारी शुरू करने के लिए दिल्ली आ गए दैनिक वीर अर्जुन में नौकरी शुरू कर दी जल्दी ही एक तेज तर्रार रिपोर्टर और विचारोत्तेजक लेखक के रूप में उनकी ख्याति फैल गई लेखक से अध्ययन के विस्तार का पता भगत सिंह के विचार की शान उनके पढ़ाई के विस्तार पर चढ़ी थी काकोरी केस के सेनानियों को भगत सिंह ने सलामी देते हुए लिखा था वो लेख उन्होंने विद्रोही नाम से लिखा था,


 इसमें उन्होंने लिखा हम लोग आह भरकर समझ लेते हैं की हमारा फर्ज पूरा हो गया हमें आग नहीं लगती हम तड़प नहीं उठते हम इतने मुर्दा हो गए आज भी भूख हड़ताल कर रहे हैं तड़प रहे हैं हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं ईश्वर उन्हें बल और शक्ति दें कि वे वीरता से अपने दिन पूरे करें और उन वीरों के बलिदान रंग लाएं जनवरी 1928 में लिखा गया ये आलेख कीर्ति में छपा था इन दो तीन सालों में भगतसिंह ने बहुत लिखा अपनी पत्रकारिता के जरिये वो लोगों के दिलोदिमाग पर छा गए फरवरी 1928 में उन्होंने विद्रोह पर दो हिस्सों में लिखा ये लेख उन्होंने बीएस संधू के नाम से लिखा था इसमें भगत सिंह ने ब्योरा दिया था कि किस तरह विद्रोहियों को रूप के मुँह से बांध कर उड़ा दिया गया था इसके भाग दो में उनके लेख का शीर्षक था युग पलटनेवाला अग्निकुंड इस लेख में भगत सिंह ने लिखा सभी आंदोलनों का इतिहास बताता है कि आजादी के लिए लड़ने वालों का एक अलग ही वर्ग बन जाता है जिनमें न दुनिया का मुँह होता है और ना पाखंडी साधु त्याग जो सिपाही तो होते थे लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नहीं बल्कि अपने फर्ज के लिए निष्काम भाव से लड़ते मरते थे सिख इतिहास यही खुश था मराठों का आंदोलन भी यही बताता है राणा प्रताप के साथी राजपूत भी ऐसे ही योद्धा थे और बुंदेलखंड के वीर छत्रसाल और उनके साथी भी इसी मिट्टी और मन से बने थे मार्च से अक्टूबर 1928 तक कीर्ति में ही उन्होंने एक धारावाहिक श्रृंखला लिखी थी शीर्षक था आजादी की भेंट शहादतें इसमें भगत सिंह ने बलिदानी क्रांतिकारियों की गाथाएँ लिखी थीं इनमें 1 मदनलाल धींगरा पर भी था इसमें भगत सिंह के शब्दों का कमाल नजर आता है उन्होंने लिखा फांसी के तख्ते पर खड़े मदन से पूछा जाता है कुछ कहना चाहते हो उत्तर मिलता है

                                     वंदे मातरम् माँ भारत माँ नमस्कार और वो वीर फांसी पर लटक गया उसकी लाश जेल में ही दफना दी गई हम हिन्दुस्तानियों को देह क्रिया तक नहीं करने दी धन्य था वो वीर धन्य है उसकी याद मुर्दा देश के इस अनमोल हीरे को बार बार प्रणाम भगत सिंह की नजर में नेहरू और बोस 1928 में भगत सिंह ने गिरती नामक एक पत्र में नए नेताओं की अलग अलग विचार शीर्षक से लिखा था तब वे सिर्फ 21 साल के थे इस लेख में उन्होंने बोस और नेहरू के नजरिये की तुलना की है उन दिनों असहयोग आंदोलन की सफलता के चलते हर तरफ निराशा का माहौल था ऐसे में भगत सिंह ने ये लेख इस सोच के साथ लिखा था कि वे कोई राजनीतिक राह चुनने में पंजाब के नौजवानों की मदद कर सकें भगत सिंह ने कांग्रेस के नेता थे और ना ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे सांप्रदायिक विचार रखने के लिए तो उन्होंने आजादी की लड़ाई के प्रतिष्ठित नामों में गिने जाने वाला लाजपत राय तक को भी नहीं बख्शा था ऐसे में ये जानना दिलचस्प हो जाता है कि भगत सिंह नेहरू और बोस जैसे दो राष्ट्रवादी नेताओं के बारे में क्या सोचते थे,


 अपने लेख में भगत सिंह ने बोस को एक भावुक बंगाली बताया था उनके मुताबिर सुभाष चंद्र बोस भारत की प्राचीन संस्कृति के भक्त हैं जबकि जवाहर लाल नेहरू अंतरराष्ट्रीय वाले नेता भगत सिंह के मुताबिक बोस कोमल दिल और रूमानी सोच वाले नेता हैं दूसरी ओर नेहरू को परंपराओं से बगावत करने वाले नेता के तौर पर देखते हैं अमृतसर और महाराष्ट्र में हुए कांग्रेस के सम्मेलन में दोनों नेताओं के भाषण का अध्ययन करने के बाद भगत सिंह ने कहा था कि भले ही बोस और नेहरू दोनों पूर्ण स्वराज के समर्थक हों लेकिन उन दोनों की सोच में जमीन आसमान का अंतर है अपने लेख में भगत सिंह बॉम्बे में हुई उस बैठक का उदाहरण दिया था जो नेहरू की अध्यक्षता में हुई थी और जिसमें बोस ने भाषण दिया था अपने लेख में भगत सिंह ने बोस के उस भाषण को एक सनकभरा प्रलाप कहा है इसमें ये टिप्पणी की गई थी कि विश्व के लिए भारत के पास एक विशेष संदेश हैं अपनी टिप्पणी में भगत कहते हैं कि पंचायतीराज से समाजवाद तक बोस हर चीज़ की जड़ प्राचीन भारत में देखते हैं और मानते हैं कि भारत का अतीत महान था भगत सिंह को राष्ट्रवाद और बुद्धा से भरा लगता है की इस बात से इत्तफाक नहीं रखते कि दूसरे देशों की तरह भारत का राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं है इसके बाद अपने लेख में भगत सिंह नेहरू के अध्यक्षीय अभिभाषण की तरफ बढ़ते हैं नेहरू बोस की बात काटते हैं उनके मुताबिक हर देश को ये लगता है कि उनके पास दुनिया को देने के लिए कुछ विशेष और अनूठा संदेश हैं वे कहते हैं मुझे अपने देश में कुछ वैसा विशेष नहीं लगता जैसी बातों में सुभाष बाबू यकीन रखते हैं बोस और नेहरू की सोच में फर्क है सुभाषचंद्र बोस इसलिए अंग्रेजों से आजादी चाहते हैं कि वे पश्चिम के हैं और हम पूरब के जवाहर लाल नेहरू इसलिए आजादी चाहते हैं विश्व शासन के जरिये हम अपनी सामाजिक व्यवस्था बदल सकते हैं नेहरू के अनुसार हमें पूर्ण स्वतंत्रता और स्वशासन सामाजिक बदलाव के लिए चाहिए भगत सिंह कहते है की पोस्ट के लिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति का महत्त्व सिर्फ उसी हद तक है जहाँ तक इससे भारत की सुरक्षा और विकास का सवाल जुड़ा हो जबकि दूसरी तरफ नेहरू राष्ट्रवाद के संकीर्ण दायरे से बाहर निकलकर अंतरराष्ट्रीयवाद नाम के खुले मैदान में आ चूके हैं दोनों नेताओं की सोच की तुलना करने के बाद अपने लेख में भगत सिंह सवाल करते हैं अब जबकि हम उनके विचार जान चूके हैं हमें अपना विकल्प चुनना होगा भगत सिंह के मुताबिक उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे युवाओं की बौद्धिक प्यास बूझ सके भगत सिंह बोस के राष्ट्रवाद के नारे से प्रभावित नहीं थे बौद्धिक रूप से उन्हें नेहरू ज्यादा चुनौतीपूर्ण और तृप्तिदायक लगते थे उनके मुताबिक पंजाब के युवाओं को बौद्धिक खुराक की शिद्दत से जरूरत है और ये उन्हें सिर्फ नेहरू से मिल सकती है,


 भगत सिंह ने लिखा था क्रांति का सही अर्थ समझने के लिए पंजाबी युवाओं को उनके पास जाना चाहिए युवाओं को अपनी सोच मजबूत करनी चाहिए ताकि हार और निराशा के इस माहौल में वे भटके नहीं जलियांवाला बाग नरसंहार जलियांवाला बाग हत्याकांड 1919 में हुआ था इस नरसंहार ने अंग्रेजी राज़ का क्रूर और दमनकारी चेहरे से पर्दा उठा दिया महात्मा गाँधी ने रॉलेट ऐक्ट के खिलाफ़ देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था इसके बाद मार्च के आखिर और अप्रैल की शुरुआत में कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए और देश के ज्यादातर शहरों में 30 मार्च और 6 अप्रैल को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया गया हालांकि इस हड़ताल का सबसे ज्यादा असर पंजाब के अमृतसर लाहौर गुजरांवाला और जालंधर शहर में हुआ लाहौर और अमृतसर में हुई जनसभाओं में 25 से 30,000 तक लोग शामिल हुए 9 अप्रैल को रामनवमीं के दिन लोगों ने 1 मार्च निकाला रामनवमीं के मौके पर निकले इस मार्च में हिंदू तो थे ही मुस्लिम भी शामिल हुए जनरल डाइअर और उनके प्रशासन को सबसे ज्यादा चिंता इसी हिंदू मुस्लिम एकता को देखकर हुई थी किसी भी विरोध को कुचलने के लिए हमेशा आतुर रहने वाले पंजाब के गवर्नर डायल ने उसी दिन अमृतसर के लोकप्रिय नेताओं डॉक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन को अमृतसर से निर्वासित करने का फैसला कर लिया और ठीक उसी दिन गाँधी जी को भी पंजाब में घुसने नहीं दिया,


 13 अप्रैल को शाम लगभग 4:30 बजे रहे थे जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में मौजूद करीब 25 से 30,000 लोगों पर गोलियां बरसाने का आदेश दे दिया है कि इसके लिए कोई पूर्व चेतावनी तक नहीं दी गई 10 मिनट तक बिना रुके गोलियां बरसती रही सैनिकों ने करीब 1650 राउंड गोलियां चलायी सरकारी दस्तावेज में दर्ज हुआ 379 लोग लाश में तब्दील कर दिए गए हालांकि कहा जाता है कि इस नरसंहार में करीब 1000 लोग मौत के हवाले कर दिए गए थे उस समय भगत सिंह की उम्र महज 12 साल की थी मगर ये पहला मौका था,


 जब भगत सिंह के रंगों में अंग्रेजों के खिलाफ़ नफरत गुस्से का रंग तैयार कर लिया था इस नरसंहार ने भगत सिंह को भीतर से झकझोर दिया था इस घटना की सूचना मिलते ही वे अपने दोस्तों के साथ घर से 12 मील दूर जलियांवाला बाग पहुँच गए और अंग्रेजों के विरोध में हिस्सा लिया भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत जलियांवाला बाग नरसंहार ने लोगों के भीतर गुस्सा भर दिया था मगर उस उससे को कुछ समय तक गाँधी जी के नए प्रयोग के आश्वासन ने थामे रखा उस समय महात्मा गाँधी अंग्रेजों के खिलाफ़ असहयोग आंदोलन चला रहे थे गाँधी जी को ये बात का यकीन था कि अहिंसा के जरिए देश को आजादी मिल सकती है ऐसा मंजर हर तरफ दिख भी रहा था लेकिन इसी बीच चौराचौरी कांड हो गया गोरखपुर के पास स्थित चौरा चौरी नामक एक जगह पर आंदोलनकारियों ने थाने में आग लगा दी और 22 पुलिसकर्मियों को उस आग के हवाले कर दिया इसके बाद गाँधी जी ने अपना असहयोग आंदोलन अचानक से वापस ले लिया इससे लाखों नौजवानों को धक्का लगा उन्होंने अपने देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी मार्ग चुनना पसंद किया यही वो वक्त था जिसमें आजादी पाने की फिलॉसफी की बुनियाद हिंसक क्रांति बन गई नौजवानों के गर्म खून में शहादत के जज्बात उबलने लगे वे अंग्रेजों से किसी भी कीमत पर बदला लेना चाहते थे और भगत सिंह ऐसे नौजवानों के प्रतीक बन गए भगतसिंह ने आजादी के लिए हिंसा का रास्ता चुन लिया और गोली बंदूक के दम पर अंग्रेजों से बदला लेने के रास्ते पर चल पड़े काकोरी कांड देश की आजादी की खातिर नौजवानों ने जब हिंसा का रास्ता चुन लिया तो इसके लिए उन्हें बन्दूक और गोली की भी जरूरत पड़ने लगी मगर सवाल था कि गोली और बंदूक मिले कैसे इस के लिए इन नौजवानों ने असलहे की लूट का रास्ता चुना ऐसे ही नौजवान क्रांतिकारियों में रामप्रसाद बिस्मिल भी थे उन्होंने अंग्रेजों का खजाना लूटने की योजना बनाई जिसके लिए उन्होंने लखनऊ के काकोरी रेलवे स्टेशन का चुनाव किया नौ अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से

 

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